सुरेश जायसवाल, देवास
अंग्रेज लोग स्वतन्त्रता आन्दोलन के बड़े नेताओं को सामान्य जेल की बजाय ऐसे स्थान पर भेजना चाहते थे, जहाँ से भागना असम्भव हो तथा वे शारीरिक और मानसिक रूप से टूट जायें। इसके लिए उन्हें समुद्र से घिरा अन्दमान द्वीप समूह ठीक लगा। यहाँ साँप, बिच्छू से लेकर विषैले मक्खी-मच्छरों तक की भरमार थी। जंगलों में खूंखार वनवासी बसे थे। अतः यहाँ से भागने की कल्पना भी कठिन थी। अंग्रेजों ने 10 मार्च, 1858 को राजनीतिक बन्दियों तथा अन्य अपराधियों का पहला दल वहाँ भेजा। इनकी संख्या 200 थी। इसके बाद 441 बन्दियों को और भेजा गया।
राजनीतिक बन्दी अच्छे परिवारों से होते थे। अनेक तो जमींदार, नवाब, लेखक और पत्रकार थे; पर इनसे ही जंगल साफ कराये गये। रात में इन्हें खुले अहाते में रखा जाता था। आगे चलकर वहाबी आन्दोलन, मणिपुर के स्वतन्त्रता सेनानी तथा बर्मा से भी बन्दियों को वहाँ लाया गया। संख्या बढ़ने पर अंग्रेजों ने पोर्ट ब्लेयर में ‘सेल्यूलर जेल’ बनाने का निर्णय किया। 13 सितम्बर, 1896 को शुरू हुआ निर्माण कार्य 1906 में जाकर पूरा हुआ।
साढ़े तेरह ग सात फुट आकार की 689 कोठरियों वाली तीन मंजिली जेल में साइकिल की तीलियों की तरह फैले सात खण्ड थे। इनमें क्रमशः 105, 102, 150, 53, 93, 60 तथा 126 कोठरियाँ थी। इनकी रचना ऐसी थी, जिससे कैदी एक-दूसरे को देख भी न सकें। एक खण्ड की कोठरियों का मुँह दूसरे खण्ड की पीठ की ओर था। बीच में स्थित केन्द्रीय मीनार पर हर समय सशस्त्र पहरा रहता था। कोठरियों पर मजबूत लोहे का जालीदार दरवाजा होता था। फर्श से नौ फुट ऊपर तीन ग एक फुट का रोशनदान था। सोते समय भी कैदी पर रक्षकों की निगाह बनी रहती थी।
हर खण्ड को अलग से बन्द किया जाता था। सातों के गलियारे केन्द्रीय मीनार पर आकर समाप्त होते थे, वहाँ लोहे का एक भारी दरवाजा था। जेल में आना-जाना इसी से होता था। यों तो उस जेल में एक साथ 21 सन्तरी पहरा देते थे; पर जेल की रचना ऐसी थी कि आवश्यकता पड़ने पर एक सन्तरी ही पूरी जेल पर निगाह रख सकता था।
इस जेल में भारत के अनेक महान् स्वतन्त्रता सेनानी बन्दी रहे, जिनमें सावरकर बन्धु, होतीलाल वर्मा, बाबूराम हरी, पंडित परमानन्द, पृथ्वीसिंह आजाद, पुलिन दास, त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती, गुरुमुख सिंह, भाई परमानन्द, लद्धाराम, उल्हासकर दत्त, बारीन्द्र कुमार घोष आदि प्रमुख थे। बन्दियों को कठिन काम दिया जाता था, जो प्रायः पूरा नहीं हो पाता था। इस पर उन्हें कोड़े मारे जाते थे। हथकड़ी, बेड़ी और डण्डा बेड़ी डालना तो आम बात थी।
यातनाओं से घबराकर अनेक कैदी आत्महत्या कर लेते थे। कई पागल और बीमार होकर मर जाते थे। खाने के लिए रूखा-सूखा भोजन और वह भी अपर्याप्त ही मिलता था। द्वितीय विश्व युद्ध के दिनों में साढ़े तीन साल यहाँ जापान का कब्जा रहा। इस दौरान सुभाषचन्द्र बोस ने 29 दिसम्बर, 1943 को जेल का दौरा किया। उन्होंने अन्दमान में तिरंगा फहराया तथा अन्दमान और निकोबार द्वीपों को क्रमशः स्वराज्य और शहीद द्वीप नाम दिया।
1947 के बाद इसे राष्ट्रीय स्मारक बनाने की प्रबल माँग उठी; जो 32 साल बाद पूरी हुई। 11 फरवरी, 1979 को जनता पार्टी के शासन में प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने यहाँ आकर इस पवित्र सेल्यूलर जेल को प्रणाम किया और इसे ‘राष्ट्रीय स्मारक’ घोषित किया।