अप्रिय को भी प्रिय बना लो- सुख आपके हाथों में है- शीलगुप्ता श्रीजी

देवास। अपने घर में दुर्जन व्यक्ति का प्रवेश न हो जाए इस हेतु हमे हमेशा सतर्क रहना है। पर अपने मन में भी कोई दुर्विचार का प्रवेश न हो जाए, इस हेतु हमारी सतर्कता क्यों नहीं?
व्यक्तित्व का निर्माण ऐसे करो कि आपकी आज्ञा के बिना कोई दुर्विचार आपके मन में प्रवेश नहीं कर पाए। यदि प्रवेश कर भी जाए तो ज्यादा समय टिक नहीं पाए। उक्त विचार श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ मंदिर पर साध्वीजी श्री शीलगुप्ता श्रीजी एवं शीलभद्राजी ने कहे।
आपने कहा कि वे टू थिंकिंग में आगे बढ़ते हुए कैसे विचार नहीं करना चाहिये उसके लिये हमें यह करना है कि मनपसंद चीज, व्यक्ति या शब्द मेरे पास ही रहे, मुझसे दूर न हो। ऐसी विचारणा नहीं करना चाहिये, प्रिय का वियोग हमें दुखी कर देता है। साथ ही नापसंद चीज, नापसंद व्यक्ति या ना पसंद शब्द मेरे पास नहीं रहने चाहिये। मुझसे दूर ही रहे तो अच्छा। ऐसी सोच भी नहीं करनी है। अप्रिय संयोग मिलन की विचारणा भी हमें दुखी करती है। इन दोनों विचारणा से दूर होने के लिये प्रिय अप्रिय शब्द को हटाना होगा। क्योंकि कोई भी प्रिय-अप्रिय नहीं होता, प्रिय अप्रिय-हमारी मानसिकता है। ये मानसिकता दूर होगी तो ही राग, द्वेष की मुक्ति होगी। आज से हमें अपनी सारी अप्रिय चीजो को प्रिय बनाना है। जब अप्रियता खत्म हो जाएगी तब दुखों की भी समाप्ति हो जाएगी।
प्रवक्ता विजय जैन ने बताया कि समग्र जैन समाज के लिये दिनांक 31 सितम्बर का नियम अप्रिय को प्रिय बनाने हेतु अपने पास आए हुए अप्रिय वस्तु, व्यक्ति एवं शब्दों का सत्कार करें आदर करें।

Post Author: Vijendra Upadhyay

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