जानिए कौन थे योगी शीलनाथजी महाराज

आंनद गुप्ता, देवास



देवास। योगी शीलनाथ जी महाराज उच्चकोटि के सत्यव्रती महात्मा थे।उन्होने अपनी तपस्या, योग सिद्धि से नाथ ससम्प्रदाय की गरिमा की श्रीवृद्धि की थी। महाराज शीलनाथ जी अन्तराष्ट्रीय ख्याति के योगी थे। उंन्होने काबुल, कंधार, चीन ,ब्रह्मा आदि देशों में धूनी रमाई थी। भारत वर्ष में हिमालय के तपोवन, हरिद्वार, ऋषिकेश, उज्जैन, इंदौर, ग्वालियर, देवास , राजस्थान हरियाणा को उंन्होने अपनी योग साधना से गौरवान्वित किया।
आप महान हठ योगी थे तथापि अपनी साधना में राजयोग के अभ्यास को ही महत्व दिया। उनकी दाढ़ी चार पांच हाथ लंबी थी पर बंधी रहती थी। गले में नाद जनेऊ और कानों में मिट्टी के कुंडल अलंकृत थे। वे खुले मैदान में ही धूनी तापते थे। कभी कभी निर्जन स्थान में धूनी तापते तब धूनी के आस पास दो तीन सिंह बैठे दीख पड़ते थे। शीलनाथ जी महाराज के पूर्वज राजस्थान के जयपुर राज्य के आश्रित क्षेत्रीय घराने के थे। उनका जन्म 19 वीं शताब्दी के दूसरे चरण में हुआ था। आठ नो साल की अवस्था में ही उनके मन में वैराग्य का उदय हो गया था। कभी कभी वे रात घने जंगल में ही रह जाते थे। उन्हें बाल्यकाल से ही अनहद नाद सुनाई देता था। वे जन्म जात योगी थे। इनकी माता के स्वर्गवास उपरांत वे नाथ योगियों के सुल्तानपुर मठ पहुंच गए।


सुल्तानपुर दिल्ली से 250 किलो मीटर और हिसार से 24 किलोमीटर दूर है। 1684 ई. में बीकानेर राजा अनूप सिंह के राज्य काल से ही यहां नाथों का आश्रम है।उस समय नाथ गद्दी पर इलायचीनाथ जी विराजमान थे। बालक( शील नाथ) जी ने कहा मुझे दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिये।इस तरह 1839 ई.में नाथ योगी के रूप में दीक्षित हुए,और गुरु आज्ञा से पर्यटन को निकल पड़े।उनके मस्तक पर जटा, कान में कुंडल, काली उनकी जनेऊ, रेशमी सूत्र नाद, सिंगी, पूं गी, कमर में उनका मोटा आडबन्ध और कोपीन ही शरीर के अलंकार थे। भृमण के दौरान काबुल होते हुए ईरान पहुंच गए। फिर बल्ख बुखारा भी गए।पामीर के पठार होते हुए चीन गए। फिर चीन से ब्रह्मा फिर ब्रह्मा से हरिद्वार आगए। आप हिमालय के तपोवन में विचरण करते हुए मान सरोवर पहुंच गए। मानसरोवर से 36 किलोमीटर दूर स्तिथ महात्मा भेडानाथ की कुटिया पर पहुंच गए। शील नाथ जी महाराज भूटान, चीन, होते हुए बंगाल के सुंदरवन पहुंच गए। उसी समय पता चला कि गुरु देव इलायचीनाथजी महाराज ब्रह्मलीन हो गए। सभी ने इनको गद्दी पर विराजमान होने की प्रार्थना की महाराज ने इस पद को अस्वीकार कर दिया।
भृमण करते हुए सम्वत1953 विक्रमी में वे उज्जैन आयेऔर फुलवाड़ी में अखण्ड धूनी प्रज्वलित की। यूरोपीय सज्जन श्री आनरट, श्री टेलर तथा देवास, ग्वालियर, इंदौर आदि प्रखंडों के अनेक लोग इनके दर्शन को उमड़ पड़े।
योगी शीलनाथ जी उज्जैन से इंदौर आये और बढबाय के जंगल में अखण्ड धूनी प्रज्वलित की। इंदौर के नरेश शिवाजी होलकर उनके दर्शन करने आये। महाराज शीलनाथ जी ने माधव राव सिंधिया की प्रार्थना पर थोड़े समय के लिए ग्वालियर के राजमहल कोअपनी चरण धूलि से पवित्र किया। कुछ समय देवास में भी प्रवास किया।यहां न्यायमूर्ति बलवंत राव, देवास के नरेश श्री मल्हार राव,बाबा साहब पंवार, श्रीमंत ख़ासेराव, देवास की बड़ीपाती के नरेश तुकोजीराव पंवार आदि सभी महाराज शीलनाथजी के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे। एक बार महाराज भृमण करते हुए झालावाड़ पहुंच गए। वहां के नरेश जालम सिंह जी ने उनको महल में पधारने का निमंत्रण दिया। महाराज नहीं गए। नरेश नाराज हो गए।शीलनाथजी अन्यत्र प्रस्थान कर गए। दुर्भाग्य से राजा को राजकार्य से अलग होना पड़ा। राजा अपनी रानी के साथ धूनी पर आए और क्षमा प्रार्थना की पर दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।
एक बार महाराज की धूनी पर एक साधू आया ,और आग पर चलने की सिद्धि प्रदर्शित करने को कहा। महाराज ने सावधान किया कि धूनी की अग्नि अलग है,यह साधारण आग नहीं है। वह नहीं माना और धूनी की अग्नि पर पैर रखा ही था कि उकसा सारा शरीर भस्म हो गया। महाराज देवास नरेश मल्हारराव के अनुरोध से सन 1920 तक देवास में ही रहे। वहां से ऋषिकेश चले गए।महाराज ने सम्बत 1977 विक्रमी की चेत्र कृष्ण चतुर्दसी गुरुवार को (सन 1920 ई.में) छः बजे सांयकाल शरीर का त्याग कर दिया। मल्हार राव ने उनकी भव्य समाधि का निर्माण करवा कर उनके चरण देश में अपनी शृद्धाजंलि अर्पित की। योगिराज शीलनाथ अप्रतिम नाथ योगी थे ।जिन्होंने 100 साल तक शरीर धारण कर नाथ योग की गरिमा बढाई। उनकी दिव्य जीवन वृति चिर स्मरणीय है।।
आदेश आदेश

Post Author: Vijendra Upadhyay