हादसों के बाद जागते हम-मोहन वर्मा

आमतौर पर ये हम सबकी बुरी आदत है कि छोटे बड़े किसी भी तरह के हादसे हो जाने के बाद हमारी नीदं खुलती है. हम से आशय है निजी तौर पर हम, निजी संस्थाएं, सरकार,शासन और व्यवस्था के जिम्मेदार. हमारी नीदं जबतक नहीं खुलती जबतक कि कोई बड़ी घटना,दुर्घटना नहीं हो जाती और फिर घटना,दुर्घटना हो जाने के बाद सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने की तरह हम जागते है,घटना दुर्घटना की समीक्षा करते है, बदलाव के संकल्प लेते है सरकारी मामलों में जाँच का नाटक, कडी कार्यवाही की चेतावनी और बाद में ढाक के वही तीन पात.

इंदौर में बीते शुक्रवार को हुई सडक दुर्घटना में डीपीएस स्कूल की बस का ट्रक से टकराना और हादसे में चार मासूम बच्चों की मौत होना नए वर्ष की शुरुवात का एक ऐसा दर्दनाक हादसा है जिसका दर्द वह पीडित परिवार ही जान सकता है जिसने हस्से में अपने हँसते, खिलखिलाते और घर में रोशनी बिखेरते बच्चों को खो दिया है. घटना के बाद सामने आती जानकारी के अनुसार बस का स्टेयरिंग काम नहीं कर रहा था या कि बस के ब्रेक कम लगते थे,ये वही मुहावरा हुआ सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटना .

रोजमर्रा की ज़िन्दगी में हम देखते है बच्चे किन स्थितियों में स्कूल जाते है. अच्छे और महंगे स्कूलों के चक्कर में पेरेंट्स मुँहअँधेरे अपने मासूम बच्चों को दूरदराज के स्कूलों की बसों, ऑटो में लाद कर रवाना करते है.मोटी फीस लेने वाले स्कूलों की बसों के सही मेंटेनेंस की जवाबदारी किसकी है ? इन बसों के स्टाफ द्वारा बच्चों के साथ गलत व्यवहार और यौन शोषण के किस्से भी कभी कभी सामने आते है क्योंकि अधिकतर मामलों में तो बच्चे खुद ही सहमकर चुप कर जाते है. कोई बच्चा स्कूल सम्बंधित दुर्व्यवहार या बात शेयर करता भी है तो पेरेंट्स अपनी उलझनों में एक और उलझन जानकर उसे तव्वजो नहीं देते है जो बाद में एक बड़ी घटना के रूप में सामने आती है. यही हाल ऑटो का है जहाँ क्षमता से अधिक कूच कूच कर भरे बच्चे आये दिन देखने को मिलते है.

हादसे हो जाने के बाद व्यवस्था को गलियाने का ये पहला और अंतिम मामला नही है. स्कूलों की स्थितियों में,व्यवस्था में कोई जादूई गुणात्मक सुधार हो जायेगा ऐसा भी नहीं है.मगर ये जिम्मेदारी उन सस्थानों की तो बनती है जो पालकों से मोटी फीस वसूलते है और जिनकी जिम्मेदारी पर पालक अपने मासूम बच्चों को सुरक्षित माहौल में बेहतर शिक्षा देना दिलाना चाहते है

डीपीएस हादसे की तरह ही आये दिन हमारे सामने घटना दुर्घटनाएं होती रहती है जिन्हें अनदेखा करते हम किसी बड़े हादसे का इंतज़ार करते है और फिर हादसा हो जाने के बाद नींद से जागे हम अफ़सोस जाहिर करते है,संकल्प लेते है, और सरकारी मामलों में जांच बैठाते है,चेतावनी देते है ज्यादा हुआ तो मातमपुर्सी और मुआवजा तो है ही .

प्रसंगवश देखें तो प्रदेश में बीते समय में बडवानी में सरकारी नेत्र शिविर में संक्रमित माहौल में और संक्रमित औजारों से हुए आपरेशन में कितने ही लोगों को अपनी आँखों की रोशनी खोना पड़ी, मगर क्या हुआ आज भी कई अस्पतालों में, शिविरों में यही हो रहा है

बदनावर में अवैधानिक रूप से संग्रहित विस्फोटकों के जखीरे ने कितने ही निर्दोषों को चिथड़ों में बदल दिया था,कुछ समय चली जाँच में ऐसे ठिकानों पर दबिश भी दी गई तो क्या आज सब कुछ ठीक है ? इन्दौरे के व्यस्त रानीपुरा में फटाके की दुकानों में लगी आग में कई निर्दोषों की जान चली गई शहर शहर फटाके व्यवसायियों पर शिकंजा कसा गया मगर क्या आज भी सब कुछ वैसा ही नही हो रहा? एटीएम उखाड़ ले जाने पर एटीएम सुरक्षा पर समीक्षाएं होती है, बेंकें सतर्क होती है मगर कुछ समय बाद वही ढाक के तीन पात .

जरूरत इस बात की है कि निजी और संस्थागत रूप से जिम्मेदारी और जवाबदारी के साथ पूरे जागरूकता के साथ इस बात को सुनिश्चित किया जाये कि जोखिम,खतरे,हादसों को महसूस करें और समय पूर्व ही समुचित और पर्याप्त सावधानी बरतते हुए कदम उठाये जाएँ

Post Author: Vijendra Upadhyay

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