देवास। शारीरिक बीमारी को दूर करने के लिये डॉक्टर के पास जाना पड़ता है तो आत्मिक, मानसिक बीमारी को दूर करने के लिये प्रभु एवं गुरूदेव के पास जाना पड़ता है। शारीरिक बीमारी एक भव को इस जन्म में बिगाड़ती है और मानसिक बीमारियां भवोभव को हर जन्म को बिगाड़ती है। पर आज के समय में लोग शारीरिक बीमारियों का इलाज करवाते है, किंतु मानसिक एवं आत्मिक बीमारियों की उपेक्षा करते है और जीवन की खुशी को खो बैठते हैं।
उक्त विचार श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ मंदिर में चार्तुमासिक धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए साध्वीजी शीलगुप्ता श्रीजी एवं शीलभद्रा श्रीजी ने कहे। आपने कहा कि परमात्मा ने बताया कि आत्मिक बीमारी का मूल है अपने मन की अपनी सोच। मन एक क्षण में खुशी अर्पित करता है तो दूसरे ही क्षण में गम। मन हमें जीता भी सकता है और हरा भी सकता है। यदि हमें जीवन को सफल, आनंदमय बनाना है तो मन को अपनी सोच बदलना पड़ेगी। वे टू थिंकिंग की जो बातें है उसे ध्यान में लेना पड़ेगी। कैसी सोच करनी चाहिये और कैसी सोच नहीं करना चाहिये वो सीखें। पहले कैसी सोच नहीं करने योग्य है इसका सर्वप्रथम बिंदु है कि अपनी प्रिय वस्तु या प्रिय व्यक्ति अपने से दूर न होवें, अपने पास ही रहना चाहिये। यह विचारणा नहीं करना चाहिये। इससे ही हम हरदम दुखी होते हैं। दिन के हर घंटे में हर मिनट पर हमें ये सोच आती ही है जिससे हम दुखी होते हैं। अत: प्रिय के वियोग की विचारणा से हमें दूर रहना है।
प्रवक्ता विजय जैन ने बताया कि समग्र जैन समाज के लिये आज 30 सितम्बर का नियम है जीवन का सर्वश्रेष्ठ सार संयम है अत: संयम के प्रति तीव्र अभिलाषा जगाने हेतु संयम मने जल्दी फलो, संयम जीवन जल्दी फलो इस पंक्ति का पुन: पुन: स्मरण करें।