जहां मन में कोई कुंठा नहीं है,कोई संकीर्णता नही है, उसे ही स्वर्ग कहते हैं

  • मन के संकुचित अवस्था में आत्मा का विस्तार संभव नहीं है -आचार्य विश्वदेवानंदअवधूत

देवास। भारत सरकार के कोरोना गाइडलाइन का पालन करते हुए आनंद मार्ग के हेड क्वार्टर  आनंद नगर (पुरूलिया) में आनंद मार्ग प्रचारक संघ की ओर से विश्वस्तरीय  धर्म महासम्मेलन 30 एवं 31 दिसम्बर 2021 को सम्पन्न होगा। प्रथम दिन 30 दिसंबर को  ब्रह्म मुहूर्त में साधक-सधिकाओं ने गुरु सकाश एवं पाञ्चजन्य में बाबा नाम केवलम का गायन कर वातावरण को मधुमय बना दिया। आनंद मार्ग प्रचारक संघ  देवास के भुक्तिप्रधान दीपसिंह तंवर एवं उप भुक्तिप्रधान हेमेन्द्र निगम ने बताया कि आनंद मार्ग प्रचारक संघ के पुरोधा प्रमुख श्रद्धेय आचार्य विश्वदेवानंद अवधूत जी के पहुंचने पर कौशिकी व तांडव नृत्य किया गया। प्रभात संगीत का अनुवाद हिंदी में आचार्य अवधूत, अंग्रेजी में आचार्य रागानुगानंद अवधूत एवं बांग्ला में अवधूतिका आनंद दयोतना आचार्या ने किया।

आचार्य शान्तव्रतानंद अवधूत ने बताया कि साधकों को संबोधित करते हुए  श्रद्धेय आचार्य विश्वदेवानंद अवधूत ने कहा की विस्तारित मन ही बैकुंठ है। मन के संकुचित अवस्था में आत्मा का विस्तार संभव नहीं है। यदि इस संकुचित अवस्था को हटा दिया जाए, दूर कर दिया जाए ,तो मन में स्वर्ग की स्थापना हो जाती है। इसलिए बाबा कहते हैं विस्तारित हृदय  ही वैकुंठ है । जहां मन में कोई कुंठा नहीं है,कोई संकीर्णता नही है, उसे ही स्वर्ग कहते हैं । भक्त कहता है कि मैं हूं और मेरे परम पुरुष हैं दोनों के बीच में कोई और तीसरी सत्ता नहीं है। मैं किसी तीसरे सत्ता को मानता ही नहीं हूं। इस भाव में मनुष्य प्रतिष्ठित होता है तो उसी को कहेंगे ईश्वर प्रेम में प्रतिष्ठा, भगवत्प्रेम में प्रतिष्ठा हो गई । यही है भक्ति की चरम अवस्था। चरम अवस्था में भक्त के मन से जितने भी ईर्ष्या, द्वेष, घृणा , भय, लज्जा , शर्म  ,मान ,मर्यादा, यश -अपयश इत्यादि के भाव समाप्त हो जाते हैं। उनका मन सरल रेखा कार हो जाता है और उनमें ईश्वर के प्रति भक्ति का जागरण हो जाता है। पुरोधा प्रमुख जी ने ईश्वरीय प्रेम युक्त भक्तऔर तथाकथित  कुंठाग्रस्त मन वाले भक्त के चरित्र चित्रण कृष्ण के सिर दर्द वालीकथा के  माध्यम से समझाया । एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने  कहा की मेरे सिर में बहुत दर्द है। यह दर्द भक्तों के चरण धूलि से ही ठीक होगा। यह बात सुनकर नारदजी भगवान के तथाकथित बड़े-बड़े तगड़े भक्तों के पास गए । जो भगवत चर्चा, भगवत कथा के माहिर थे ,उनमें से सबों ने उन्हें यह कहते हुए चरण धूलि देने से इनकार कर दिया कि हमें  पाप लगेगा। नारद  खाली हाथ लौट आए और यात्रा वृतांत भगवान श्रीकृष्ण को सुनाया । तब श्री कृष्ण ने नारद से कहा कि तुम वृंदावन जाओ। वृंदावन जाकर जब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के सिर दर्द की बात कही तो सभी सरल मन के भक्त गोप – गोपी अपने पैरों के धूल देने के लिए तैयार हो गए । पापी बनने और नरक में जाने की बात जब नारद ने उन्हें कहा तो भक्त गोपीजन ने इसकी परवाह न करते हुए अपने पैरों की धूल ही दे दी ।तुम्हें जाने की बात जब नारद ने उन्हें कहा तो भक्त गोपीजन ने इसकी परवाह नहीं करते हुए अपने पैरों की धूल  दे ही दी । उनका तर्क यह था कि यदि हमारे आराध्य इससे ठीक हो जाएंगे तो इससे बड़ी खुशी की बात हमारे लिए क्या हो सकती है।वास्तव में  यह तो श्री कृष्ण का कपट रोग था। जैसे ही नारद धूल लेकर कृष्ण के पास आए कपट रोग यूं ही हो ठीक हो गया। पुरोधा प्रमुख जी ने कहा कि भगवान श्री कृष्ण भक्ति की परीक्षा ले रहे थे जिसमें वृंदावन के भक्त सफल हो गएऔर तथाकथित बड़े-बड़े भक्त असफल हुये। उन्होंने कहा कि जहां भक्त हृदय में कोई संकीर्णता नहीं है, कुंठा से रहित है, वही वास्तव में बैकुंठ है। इसे ही आंतरिक बैकुंठ कहते हैं। बाहरी बैकुंठ यह आनंदनगर है । अनेक भक्तों ने इसभूमि पर आध्यात्मिक अनुभूति के ऊंचे शिखर को छुआ है। सच्चे भक्त लक्ष्य प्राप्ति तक अनवरत अध्यात्मिक साधना का कठोर अभ्यास करते हैं। उक्त जानकारी रेक्टर मास्टर आनंद नगर आचार्य अनिर्वानंद अवधूत, आचार्य हृदेश ब्रह्मचारी ने दी। 

Post Author: Vijendra Upadhyay