परम पुरुष एकल सत्ता है जब वह अकेले थे उस समय किसी प्रकार की सृष्टि नहीं थी सृष्टि धारा का आरम्भ तब होता है जब निर्गुण ब्रह्म सगुण बन जाते हैं


– लीला उस खेल को कहते हैं जिस खेल का रहस्य मालूम नहीं है और जब किसी खेल का रहस्य मालूम हो जाये वह लीला नहीं रह जाता उसे क्रीड़ा कहते है – आचार्य विश्वदेवानंद अवधूत
देवास। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ की ओर से आयोजित तीन दिवसीय विश्व स्तरीय धर्म महासम्मेलन के दूसरे दिन 28 अक्टूबर को अमझर कोलकाली, आनन्द सम्भूति मास्टर यूनिट एवं रेलवे इंस्टीट्यूट सभागार जमालपुर में आयोजित भूक्ति प्रधान कॉन्फ्रेंस में आए सभी भूक्ति प्रधान आचार्य, तात्विक तथा वरिष्ठ साधकों देवास के भुक्ति प्रधान दीपसिंह तंवर, अशोक वर्मा सोनकच्छ, उज्जैन के डॉ अशोक शर्मा, इंदौर से अरविंद सुगंधी,सीहोर से बालकृष्ण माहेश्वरी, भोपाल से जगदीश मालवीय, होशंगाबाद से वी एन अवस्थी,आचार्य हृदयेश ब्रम्हचारी आदि ने हिस्सा लिया। आनंद मार्ग प्रचारक संघ के महासचिव आचार्य अभीरामानंद अवधूत की अध्यक्षता में यह कार्यक्रम हुआ। संस्था का मुख्य विभागीय सचिवों ने अपने विचार एवं सुझाव रखे। कार्यक्रम का मंच संचालन हरानंद ने किया। आनंद मार्ग प्रचारक संघ देवास के सचिव आचार्य शांतव्रतानन्द अवधूत ने बताया कि पुरोधाप्रमुख जी के पंडाल पहुंचने पर कौशिकी व तांडव नृत्य किया गया। पुरोधा प्रमुख दादा को (के बी सी सम्मानित हुए देवघर के नारायण आश्रम) (जिन बच्चों के माता-पिता त्याग कर दिए हैं उनका आश्रम है) हरे राम पांडे ने पुरोधा प्रमुख दादा को माला पहनाई , पुरोधा प्रमुख श्रद्धेय आचार्य विश्वदेवानन्द अवधूत दादा ने परम पुरुष की लीला विषय पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि परम पुरुष एकल सत्ता है जब वह अकेले थे उस समय किसी प्रकार की सृष्टि नहीं थी सृष्टि धारा का आरम्भ कब होता है जब निर्गुण ब्रह्म सगुण बन जाते हैं । उस अवस्था में प्रकृति अपने सृजनात्मक क्षमता को व्यक्त नहीं कर पाती जब परम पुरुष अक्षुण्ण अवस्था में रहते हैं । परम पुरुष जब स्वयं एक से अनेक होने का संकल्प लेते हैं तब सृष्टि शुरू होती है , प्रकृति के द्वारा संचर धारा में भूमामन और पंचभूत तत्वों का निर्माण होता है। वही प्रतिसंचर धारा में असंख्य जीवों का निर्माण होता है यही प्रकृति द्वारा सृष्टि परिदृश्यमान जगत है। जो हमारे सामने दृष्टिगोचर होता है ,सृष्टि के सभी जीव सगुण ब्रह्म की अभिव्यक्ति है। परम पुरुष ने स्वयं को ही परम श्रेष्ठ के रूप में परिवर्तित करते हैं । परम पुरुष ही इस सृष्टि के कारण सत्ता है । जब सृष्टि धारा की संचर और प्रति संचर में परम पुरुष रहते हैं तो उसे कहते हैं परम पुरुष की लीला भाव। रंग बिरंगी दुनिया इस लीला भाव के कारण ही अस्तित्व में आया है, लीला उस खेल को कहते हैं जिस खेल का रहस्य मालूम नहीं है और जब किसी खेल का रहस्य मालूम हो जाये वह लीला नहीं रह जाता उसे क्रीड़ा कहते है , परमात्मिक खेल को ही परमात्मा लीला कहा जाता है। किसी को भी इस संसार का अंतिम मालिक मालिकाना उन्हीं के पास है वह किसी भी वस्तु को अपनी इच्छा के अनुसार कैसे भी रख सकते हैं वह पुरुष को नारी और बच्चे को बूढ़ा, आदमी को जानवर आदि कुछ भी बना सकते हैं यही परम पुरुष की लीला है। उक्त जानकारी संस्था के हेमेन्द्र निगम नेे दी।

Post Author: Vijendra Upadhyay