पैरा कमांडोज कांच खा जाते हैं, बलिदान बैज के लिये

ग्लव्ज पर बने पैरा-कमांडोज के ‘बलिदान’ के निशान को लेकर आईसीसी और महेंद्र सिंह धोनी में से कोई झुकने को तैयार नहीं है। बीसीसीआई प्रशासकों की समिति के चेयरमैन विनोद राय ने साफ कर दिया है कि इस निशान को हटाने की जरूरत नहीं है।
बलिदान बैज पाना हर सेना के हर सैनिक का एक ख्वाब होता है। मगर इसके लिए जिस शरीर तोड़ देने वाली ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है, उसे सोचकर ही कई लोगों के होश उड़ जाते हैं।

पैरा (स्पेशल फोर्सेज) की ट्रेनिंग दुनिया में सबसे मुश्किल होती है, जिसमें जवान को हर उस दर्दनाक चीज से गुजरना पड़ता है, जिसे सोचकर ही एक आम इंसान की चीख निकल जाए। जवानों को सोने नहीं दिया जाता, भूखा रखा जाता है। मानसिक और शारीरिक तौर पर टॉर्चर किया जाता है। बुरी तरह थके होने के बावजूद ट्रेनिंग चलती रहती है। खाने को न मिले तो आसपास जो उपलब्ध हो, उसी से गुजारा करना पड़ता है। इतनी मुश्किल ट्रेनिंग को कई जवान छोड़ चले भी जाते हैं।

इतनी दर्दनाक ट्रेनिंग पूरी करने के बाद जवानों को गुलाबी टोपी दी जाती है। लेकिन इसके बाद उन्हें बेहद खास चीज मिलती है, वो होता है बलिदान बैज।
इसे हासिल करने के लिए भी जवानों को खतरनाक परीक्षा देनी होती है. पैरा कमांडोज को ‘ग्लास ईटर्स’ भी कहा जाता है यानी उन्हें कांच भी खाना पड़ता है। यह एक परंपरा है, टोपी मिलने के बाद उन्हें रम से भरा ग्लास दिया जाता है। इसे पीने के बाद जवानों को दांतों से ग्लास का किनारा काटकर उसे चबाकर अंदर निगलना पड़ता है। इसके बाद जवानों के सीने पर बलिदान बैज लगाया जाता है।

Post Author: Vijendra Upadhyay

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